Saturday, October 10, 2020

 क्यों बदली सी लगती है दुनिया


बहारों के ऑंगन में खेलती एक नन्ही गुड़िया,

जमाने के ग़मों से बेख़बर,

कितनी थी खूबसूरत उसकी छोटी सी दुनिया।


आज जहाँ पर रखा उसने पहले कदम,

यूँ लगा जैसे दहकते शोलों पर रखा कदम,

कल छलकता था प्यार जिन आंखों में,

आज है वहशत उन्ही आँखों में,

सोच में पड़ गई थी वो,

कुछ उलझी सी लगती थी वो,

आज क्यों इतनी बदली सी लगती है दुनिया।

क्या कृष्ण अब न रोकेंगे द्रौपदी का वस्त्र हरण?

क्या ऐसे ही होगा नारी सशक्तिकरण,

देवी बनाकर प्रतिमा का दर्जा तो दे दिया,

पूजा तो की पर क्या स्थान वो कभी भी दिया?

बहन या फिर बेटी किसी की तो है वो,

दोगले समाज की कमजोर कड़ी है वो,

काश मिली न होती उसे ये बेरहम दुनिया।



मोमबत्ती जलाकर हो गई श्रद्धांजलि,

इंसानियत को दी कैसी ये तिलांजलि,

समाज के ठेकेदारों ने चुप्पी क्योँ साध ली?

खबर के रखवालों ने जमकर इज्जत उछाल ली।

ऊपर से झाँक रही थी वो,

आँसुओं का वेग छुपा रही थी वो,

भगवान का सृजन है क्या ये विकृत दुनिया?



Tuesday, September 29, 2020

                    हँसी

होठों की ये हँसी भी क्या हसीन चीज़ है,

ज़िन्दगी की जरूरत कहते हैं इसको,

ये हर दिल अज़ीज़ है।


आतीहै चुपके से नई दुल्हन हो जैसे,

जवानी इसकी खुशबू बिखेरती नन्ही कली हो जैसे,

होठों की महबूबा कहते हैं इसको,

ये हर दिल अज़ीज़ है।


आ जाये एक बार लबों पे तो ये जहाँ अपना है,

बगैर इसके दोस्ती का ख्याल एक सपना है,

खुश्मिज़ाज़ो की मिल्कियत होती है ये,

ये हर दिल अज़ीज़ है।



हसीनाओं के क़ातिल हुस्न का पहलू है खास ये,

साथ उनके क्या- क्या तेवर दिखाती है ये,

अदाओं की मल्लिका कहते हैं इसको,

ये हर दिल अज़ीज़ है।


Monday, September 21, 2020

                        दस्तक








ख्वाबों के घर के न खुलते दरवाजे देखकर,

मायूस होकर तुम दस्तक देना न छोड़ देना।


हँसी ही हँसी हो चाहे तेरे होठों की किस्मत में,

आँसू किसी की आँखों के तुम भी कभी पोंछ देना।


ग़मों के कारवाँ से गर हो जाये मुलाक़ात,

न घबराना ग़मों से रिश्ता कोई जोड़ लेना।


अपने ग़मों का हवाला तो देते ही हो उस ऊपरवाले को,

खुशियाँ भी अपनी कभी नाम उसके कर देना।


खो जाये जो तेरा जमीर राहों में कभी,

जमाने की गर्द में 'नीलम' उसे खोज लेना।


Monday, September 14, 2020

मुझे गर्व है मैं हिन्दी भाषी हूँ

 


क्या हिंदी हमारी मातृभाषा है?

या आजकल ये मात्र एक भाषा है।

शुद्ध हिंदी तो अब लुप्तप्राय है,

अब तो हिंग्लिश से सबको अभिप्राय है।

अंग्रेजी जानने वालों की गिनती बुद्धिजीवियों में होती है,

सिर्फ हिंदी जो जाने उनकी गिनती बेचारों में होती है।

स्मार्टनेस का दूसरा नाम अंग्रेजी क्यों है,

पिछड़ जाने का मापदंड हिंदी क्यों है।

बाबू-गिरी का ठप्पा लगता अंग्रेजी से क्यों है,

अनपढों की कतार में आज खड़ी हिंदी क्यों है।

नन्हे मासूमों को अंग्रेजी सिखाने की लग पड़ी है होड़,

हिंदी को हराने की ये कैसी शुरू हुई है दौड़?

टूटी फूटी अंग्रेजी में भी सम्मान भरी नजर क्यो है?

बोल दो, दो शब्द हिंदी के अगर प्रश्न उठाती निगाहें क्यो हैं?

आप जैसे सम्मान जनक शब्द हैं बस हिंदी में,

वरना तो छोटे बड़े सभी हैं you अंग्रेजी में।

Uncle aunty में सिमटे रहते सारे रिश्ते अंग्रेजी में,

ताऊ -ताई, चाचा-चाची,मामा- मामी होते हैं सिर्फ हिंदी में।

बात दिल को कहाँ छूती है अंग्रेजी में,

अपनेपन की सोंधी खुशबू तो है अपनी हिंदी में।

चंद वर्षों का आविष्कार ही है ये विदेशी अंग्रेजी,

वर्षों पुरानी देवनागरी का रूपांतरण है हमारी हिंदी।

अंग्रेजी बोलें, सीखें और अपनाएं भी जरूर,

पर मातृभाषा हिंदी पर अब तो करना है गुरुर।

हिंदी है हम सब में, है हमारी पहचान,

हम सबकी जान है ये, भारत की शान।


Saturday, September 12, 2020

इंसानियत


मौत बेचकर ज़िन्दगी खरीदना चाहता है,

जरा सोच तो बंदे , तू ये क्या चाहता है।


कोई जज़्बा इंसानियत का बाकी नहीं दिलों में,

गुनाहगारों की है बादशाहत भरी महफिलों में,

खुदा की नेमत है ये तेरी ज़िन्दगानी,

इस बेशकीमती सौगात को क़त्ल करना चाहता है

जरा सोच तो बंदे, तू ये क्या चाहता है।


न रखा है तूने जहाँ पर कोई कर्ज़,

न किया अदा जहाँ का कोई कर्ज़,

बेमतलब है तेरी ये ज़िन्दगानी,

इसी को क्यों कयामत तक जीना चाहता है,

जरा सोच तो बंदे, तू ये क्या चाहता है।


कहते हो खुदा का नाम तुम भी लेते हो,

महफ़िलों में उसे ही तो रुसवा करते हो,

खुदा के नाम पर दाग है तेरी ये ज़िन्दगानी,

उसी खुदा को हदों में क़ैद करना चाहता है,

जरा सोच तो बंदे तू ये क्या चाहता है।

 

Tuesday, September 1, 2020

 गुम हो गया मेरा बचपन



कुछ दिन तो गुजार लेने दो माँ आपकी कशिश में,

क्यों नन्हें कदमों को धकेलती ज़िंदगी की तपिश में,

प्रतिस्पर्धा के बोझ तले गुम हो गया मेरा बचपन।


अव्वल होना ही बनी बुद्धिमत्ता की पहचान,

जरूरी बिल्कुल भी नहीं बनूँ एक अच्छा इंसान।

90 प्रतिशत के बोझ तले गुम हो गया मेरा बचपन।


मैं भी ग़ायब रहना चाहता हूँ  दिन भर खेलने के बहाने,

क्या नसीब में मेरे नहीं वो बेफिक्री के ज़माने,

महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले गुम हो गया मेरा बचपन।


टिफ़िन ब्रेक में पानी के लिये लगने वाली लाइन,

देखा कहाँ मैंने, पहले मैं-पहले मैं, की लड़ाई वाला फाइन,

केंट आर ओ  के बोझ तले गुम हो गया मेरा बचपन।


वो इमली की गोली, पाँच रुपये की चुस्की,

खाई नहीं मैंने ठेले वाली चटपटी पानीपुरी,

हाइजीन के बोझ तले गुम हो गया मेरा बचपन।


होप्सकोच, डार्क रूम न खेला सेवेन स्टोन्स,

खेला न कभी आउटडोर हाथ आये गेमिंग ज़ोन्स,

पबजी के बोझ तले गुम हो गया मेरा बचपन।


गुड टच बैड टच ये सब के क्या है मायने,

है उम्र क्या की ये सब अभी से जाने,

वेस्टर्न कल्चर के बोझ तले गुम हो गया मेरा बचपन।


देखी न कॉमिक्स जिसमें थी चाचा चौधरी और साबू की कहानियाँ,

कैसी दिखती थीं दादी की परियाँ और राजकुमारियाँ,

बेसिर पैर के कार्टून के बोझ तले गुम हो गया मेरा बचपन।


तस्वीरों में दादू दादी चाचू चाची बुआ से मिलता हूँ,

आपकी फुर्सत में बस उनके किस्से सुनता हूँ,

एकल परिवार के बोझ तले गुम हो गया मेरा बचपन।


छोटा हूँ अभी कुछ दिन तो बच्चा रहने दो,

बुढ़ापे के लिए कुछ तो यादें सँजो लेने दो,

कुछ ही दिनों में तो कहना है मुझको,

लो यूँ ही कहीं गुम हो गया मेरा बचपन।


नीलम लाहोटी


Thursday, August 27, 2020

वो डरती मजबूर नज़र

 कल अचानक एक सहेली के घर चाय पार्टी हुई,

वहाँ जाते ही दो कातर निगाहों से आंखें चार हुई।

कुछ सहमा कुछ खोया सा वो बच्चा,

छोटा सा था अभी उम्र का भी था कच्चा।

भाग भाग कर कभी नाश्ते के प्लेट लाता,

फिर आता और खाली चाय की प्याली उठाता।

अचानक छूट गई उसके हाथ से चार गिलासें,

ख़त्म हुई सहेली की मर्यादा की अटकी सांसें।

घर जाकर भी न निकला वो सहमा सा चेहरा,

कुंठित मानसिकता ने लगाया हमारे विचारों पर पहरा।

तकदीर के दानव ने उसके बचपन को धर दबोचा,

पर जमाने की फितरत ने भी तो उसे ख़ूब नोचा।

सपनों में उसके भी तो आये होंगे डोरेमोन, शिनचैन,

दीवारों की ओट से देखा होगा उसने कभी जैकी चैन।

रात गुज़री होगी कभी उसकी माँ के काल्पनिक आँचल में,

आँख उसकी ना खुल पाई होगी सुबह की हलचल में।

छोटी सी उसकी भूख के लिए एक बाउल मैग्गी का,

क्या हक नही उसको बस ऐसे छोटे से सपने का।

हो सकता था इनमें कोई डॉक्टर, इंजीन या वकील,

शिक्षा की दहलीज न पार करने की क्या होगी कोई दलील।

क्या अंतर्मन कभी न देता होगा कोई उलाहना,

क्या किस्मत में उनकी लिखी है सिर्फ़ प्रताड़ना।

आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी क्यों है ये मजबूरी,

माँ बाप को कलेजे के टुकड़े से क्यों बनानी होती दूरी।

कोई बुनेगा क्या कभी ताना बाना इन कच्चे धागों का,

भविष्य कैसा होगा भारत माँ के इन चिरागों का।

कोई कभी बन पाएगा क्या इनका रखवाला,

कोई स्कीम इनके लिए भी तो सोचता होगा वो ऊपरवाला।

है सभी को आगे बढ़ने का हक बराबर का अमीर हो या गरीब,

दिन ऐसे भी शायद दूर नहीं अब हैं बहुत करीब।



  क्यों बदली सी लगती है दुनिया बहारों के ऑंगन में खेलती एक नन्ही गुड़िया, जमाने के ग़मों से बेख़बर, कितनी थी खूबसूरत उसकी छोटी सी दुनिया। आज जह...