Thursday, August 27, 2020

वो डरती मजबूर नज़र

 कल अचानक एक सहेली के घर चाय पार्टी हुई,

वहाँ जाते ही दो कातर निगाहों से आंखें चार हुई।

कुछ सहमा कुछ खोया सा वो बच्चा,

छोटा सा था अभी उम्र का भी था कच्चा।

भाग भाग कर कभी नाश्ते के प्लेट लाता,

फिर आता और खाली चाय की प्याली उठाता।

अचानक छूट गई उसके हाथ से चार गिलासें,

ख़त्म हुई सहेली की मर्यादा की अटकी सांसें।

घर जाकर भी न निकला वो सहमा सा चेहरा,

कुंठित मानसिकता ने लगाया हमारे विचारों पर पहरा।

तकदीर के दानव ने उसके बचपन को धर दबोचा,

पर जमाने की फितरत ने भी तो उसे ख़ूब नोचा।

सपनों में उसके भी तो आये होंगे डोरेमोन, शिनचैन,

दीवारों की ओट से देखा होगा उसने कभी जैकी चैन।

रात गुज़री होगी कभी उसकी माँ के काल्पनिक आँचल में,

आँख उसकी ना खुल पाई होगी सुबह की हलचल में।

छोटी सी उसकी भूख के लिए एक बाउल मैग्गी का,

क्या हक नही उसको बस ऐसे छोटे से सपने का।

हो सकता था इनमें कोई डॉक्टर, इंजीन या वकील,

शिक्षा की दहलीज न पार करने की क्या होगी कोई दलील।

क्या अंतर्मन कभी न देता होगा कोई उलाहना,

क्या किस्मत में उनकी लिखी है सिर्फ़ प्रताड़ना।

आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी क्यों है ये मजबूरी,

माँ बाप को कलेजे के टुकड़े से क्यों बनानी होती दूरी।

कोई बुनेगा क्या कभी ताना बाना इन कच्चे धागों का,

भविष्य कैसा होगा भारत माँ के इन चिरागों का।

कोई कभी बन पाएगा क्या इनका रखवाला,

कोई स्कीम इनके लिए भी तो सोचता होगा वो ऊपरवाला।

है सभी को आगे बढ़ने का हक बराबर का अमीर हो या गरीब,

दिन ऐसे भी शायद दूर नहीं अब हैं बहुत करीब।



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