क्यों बदली सी लगती है दुनिया
बहारों के ऑंगन में खेलती एक नन्ही गुड़िया,
जमाने के ग़मों से बेख़बर,
कितनी थी खूबसूरत उसकी छोटी सी दुनिया।
आज जहाँ पर रखा उसने पहले कदम,
यूँ लगा जैसे दहकते शोलों पर रखा कदम,
कल छलकता था प्यार जिन आंखों में,
आज है वहशत उन्ही आँखों में,
सोच में पड़ गई थी वो,
कुछ उलझी सी लगती थी वो,
आज क्यों इतनी बदली सी लगती है दुनिया।
क्या कृष्ण अब न रोकेंगे द्रौपदी का वस्त्र हरण?
क्या ऐसे ही होगा नारी सशक्तिकरण,
देवी बनाकर प्रतिमा का दर्जा तो दे दिया,
पूजा तो की पर क्या स्थान वो कभी भी दिया?
बहन या फिर बेटी किसी की तो है वो,
दोगले समाज की कमजोर कड़ी है वो,
काश मिली न होती उसे ये बेरहम दुनिया।
मोमबत्ती जलाकर हो गई श्रद्धांजलि,
इंसानियत को दी कैसी ये तिलांजलि,
समाज के ठेकेदारों ने चुप्पी क्योँ साध ली?
खबर के रखवालों ने जमकर इज्जत उछाल ली।
ऊपर से झाँक रही थी वो,
आँसुओं का वेग छुपा रही थी वो,
भगवान का सृजन है क्या ये विकृत दुनिया?